18 जनवरी 2024, गुरुवार
17 जनवरी 2024 बुधवार की शाम ठंड बहुत थी, जब मैं ऑफिस से घर पहुंचा तो मैंने एक निमंत्रण जो व्हाट्सप्प पर था के विषय पर विचार किया। मेरे एक सहपाठी हैं श्री सुनील बंसल, जिन्होंने मेरे साथ डीएवी स्कूल ग्वालियर में पढ़ाई की थी, अब उनका ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस का व्यवसाय है। सुनील जी की दो बेटियां हैं। छोटी पुत्री की अगले दिन 18 जनवरी को वृन्दावन में शादी होनी थी। वर्तमान चलन के अनुसार व्हाट्सएप पर उस शादी का ई-कार्ड कुछ दिन पूर्व मिला था। ई-वेडिंग कार्ड अंग्रेजी भाषा में वीडियो के रूप में होता है जिसे पढ़ने व समझने के लिए पूरा वीडियो बार-बार देखना पड़ता है। विवरण को तसल्ली से पढ़ना काफी असुविधाजनक होता है। मुझे अभी इसकी आदत नहीं है। विवाह स्थल की लोकेशन, तिथि तथा अन्य विवरण स्क्रीन पर बहुत कम समय के लिए डिस्प्ले होता है जिसे पढ़ पाना बहुत मुश्किल होता है। अंग्रेजी भाषा के फोन्ट भी बड़े अजीब फैंसी होते हैं जो क्षण भर दिखने पर समझ में ही नहीं आते। अतः मैंने सुनील जी को कॉल करके लोकेशन आदि के बारे में पता किया तो उन्होंने पूछा कि आप यहाँ कैसे आएंगे? खराब मौसम तथा ड्राइवर न होने के कारण मैं कार से जाने को तैयार नहीं था और सड़क यात्रा महंगी व असुरक्षित भी होती है, यदि दो-तीन लोग हों तो कार से यात्रा करना उपयोगी रहता है। इस शादी में जाने का शाम तक मेरा विचार नहीं था क्योंकि वृंदावन काफी दूर है।
कोरोना काल के बाद समाज भी टूट सा गया है, अब रिश्तों में पहले जैसा मेल-जोल का भाव नहीं रहा है। सामान्यतः मैं ज्यादा दूर के शादी समारोहों में नहीं जाता हूँ जब तक कि काफी नजदीकी सम्बन्ध न हो। रिसोर्ट आदि भी शहर से काफी दूर होते हैं और वहाँ यातायात के साधन भी सुलभ नहीं होते हैं। लेकिन रात में सोते समय मेरे मन में विचार आया कि अभी मैं स्वस्थ हूँ, अतः इष्ट मित्रों के सुख-दुःख में मुझे शामिल होना चाहिए। देश विदेश में सैकड़ों लोगों के साथ मेरा परिचय या मित्रता है। रात को ही निर्णय किया कि सुबह मैं शादी में शामिल होने के लिए निकलूँगा।
ठंड व कोहरे के कारण 18 जनवरी को सारी ट्रेनें अनिश्चित समय से चल रही थीं तथा अनेक गाड़ियों को रेलवे द्वारा तकनीकी कारण से आगरा से सीधे दिल्ली के लिए अस्थाई रूप से रूट डाइवर्ट किया गया था। अतः मैंने मथुरा जाने के लिए किसी भी ट्रेन में टिकट बुक नहीं करने का निर्णय लिया। प्रायः सुबह मेरे तीन-चार बजे जागने के बाद कुछ अध्ययन, गीता-पाठ कार्यक्रम के समापन के पश्चात् सामान्यतः मेरी श्रीमती जी सुबह की सैर के लिए जाती हैं और मैं ऑफिस के लिए तैयार होने लगता हूँ। श्रीमती जी के लौटने के पाँच-दस मिनट के बाद ही मैं कार्यालय के लिए पैदल निकल जाता हूँ। आज जब वे प्रातः भ्रमण के लिए जाने लगीं तो उन्होंने मुझे एक लिफाफा दिया और कहा कि शादी में जाओ तो शगुन दे देना। लिफाफा और एक बैग में कुछ कपड़े रखकर मैं इस उद्देश्य से मथुरा के लिए निकला कि रात में रिसोर्ट में या वृंदावन के ही किसी आश्रम में रुक जाऊंगा और अगले दिन सुबह वापस ग्वालियर आ जाऊंगा।
काफी समय से वृन्दावन देखने की मेरी इच्छा भी थी। पहले भी दो-तीन बार वृंदावन जा चुका हूँ पर ज्यादा घूम-फिर कर वृन्दावन को नहीं देखा था। सुनील जी से फोन पर बात कर लोकेशन मंगाई। सर्दी जबरदस्त थी, लगभग 9-10 डिग्री सेल्सियस तापक्रम था। मुझे अकेले ही जाना था। सर्दी का पूरा इंतजाम करके तैयार होकर और डबल मोज़े एक साथ पहनकर लगभग साढ़े सात बजे पैदल ही रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़ा जो कि घर से लगभग पाँच सौ मीटर दूर है।
स्टेशन पर काफी भीड़ थी, कोहरे के कारण ट्रेनें घंटों देरी से चल रही थीं। टिकट खिड़की पर पहुंचा तो ज्यादा भीड़ नहीं थी, मथुरा का नब्बे रुपये में जनरल टिकट खरीदकर प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुंचा। कुछ ही देर में आगरा की ओर जाने वाली ट्रेन महाकौशल एक्सप्रेस के आने की घोषणा हुई। महाकौशल एक्सप्रेस भी काफी देरी से चल रही थी। लगभग सवा आठ बजे ट्रेन प्लेटफार्म पर आई। एक टीसी महोदय एसी कोच से निकले जो आग्रह करने पर एक सीट देने को तैयार हो गए। ट्रेन में कभी-कभी जगह मिल जाती है। टीसी ने नियमानुसार किराया लेकर पक्की रसीद बना कर सीट दे दी। ट्रेन चल पड़ी। रास्ते में मैंने कई पेंडिंग कार्य, फोन कॉल, जेब की पर्चियों का निपटान, अध्ययन व पठन किया।
खराब मौसम में भी उम्मीद के विपरीत ट्रेन छः-सात घंटे की जगह लगभग चार घंटे में मथुरा स्टेशन पर पहुँच गई। मथुरा स्टेशन से बाहर जाकर वृन्दावन जाने के लिए किसी से पूछा तो पता चला कि स्टेशन से ई-रिक्शा के द्वारा नए बस स्टैंड पहुंचना होगा। दस रुपए में मथुरा स्टेशन से नया बस स्टैंड पहुंचा। मथुरा बस स्टैंड पहुंचते ही उत्तर प्रदेश सरकार की एक वातानुकूलित लो फ्लोर बस खड़ी मिली जिसमें मैं बैठ गया। बस में मेरे अलावा तीन-चार लोग और थे। थोड़ी ही देर में बस रवाना हो गई। मात्र चालीस रुपये में बहुत ही आरामदायक यात्रा रही, लगभग आधे घंटे में वृन्दावन पहुंच गया। योगी जी को इस उत्तम सुविधा के लिए मन ही मन धन्यवाद दिया।
अब मुझे विवाह स्थल वृन्दावन के रिसोर्ट "वृंदा आनंदम" पहुँचना था जिसका मुझे कुछ भी अता-पता नहीं था। बस से वृंदावन में उतर कर रिसोर्ट के लिए पैदल जाने की कवायद करनी पड़ी जो कि इस ठण्ड में बड़ा ही दुरूह कार्य था। सुनील जी ने जो लोकेशन मुझे दी थी वह गलत थी। कोई पता नहीं बता पा रहा था। बड़े रिसोर्ट शहर के बाहर के हिस्से में होते हैं जहाँ पहुँचने के लिए सामान्यतः साधन नहीं मिलते हैं। मैं इस उम्मीद से बांके बिहारी मंदिर की ओर गया कि वहां लोगों से रिसोर्ट के बारे में पता करूंगा पर कोई नहीं बता पाया।
अंत में पुलिस थाने जा कर एक पुलिस अधिकारी से वृंदा आनंदम रिसोर्ट के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यहाँ से रिसोर्ट लगभग पाँच किमी. दूर है, ऑटो रिक्शा से प्रेम मंदिर तक चले जाइये, प्रेम मंदिर से थोड़ा आगे सुनरख तिराहा है, जहां से थोड़ा सा आगे "वृंदा आनंदम" रिसोर्ट है। मैं पैदल ही निकल पड़ा। जगह-जगह भंडारे चल रहे थे जिसमें कहीं खिचड़ी तो कहीं हलवे आदि का प्रसाद वितरण हो रहा था। बहुत खूबसूरत माहौल था। कई विदेशी श्रद्धालु और पर्यटक भी घूम रहे थे।
मैंने एक ऑटो रिक्शा वाले से सुनरख तिराहे के लिए पूछा तो उसने कहा कि सामान्यतः वहाँ से वापसी की सवारी नहीं मिलती है लेकिन मैं आपको रिसोर्ट तक छोड़ दूंगा। ऑटो रिक्शा वाले ने मुझे सौ रुपये में रिसोर्ट पर छोड़ दिया। रास्ते में उससे बात करने पर वृन्दावन की काफी जानकारी मिली।
रिसोर्ट के अंदर पहुंचा। बहुत ठण्ड थी, शीत लहर चल रही थी। वृंदा आनंदम रिसोर्ट बड़ा ही खूबसूरत था। अंदर पहुँच कर मैंने सुनील जी को फोन पर अपने आने की सूचना दी, थोड़ी ही देर में वे मेरे पास आ गए। आमतौर पर जो लोग बाहर शादी समारोह आयोजित करते हैं वे अपने शहर में लोकल रिसेप्शन भी रखते हैं, मैं लोकल रिसेप्शन समारोह में चला जाता हूँ। इस प्रकार काफी समय बाद किसी बाहरी शहर के रिसोर्ट में आयोजित शादी में शामिल होने का यह मेरा पहला अनुभव था। रिसोर्ट में दोपहर के समय हल्दी की रस्म चल रही थी। महिलाओं को देख ऐसा जान पड़ता था जैसे उन पर सर्दी का कोई असर ही नहीं है। सभी हल्के वस्त्रों में थीं। शादी का आयोजन करने वाले इवेंट आर्गेनाइजर तरह-तरह के कुछ अजीब से आधुनिक स्टाइल के रीति-रिवाज के मनोरंजक क्रियाकलापों में व्यस्त थे। सारे रिश्तेदार शादी की रस्मों तथा गेम्स और खाने पीने में व्यस्त थे। मैंने सोचा क्या ठंड सिर्फ मुझे ही लग रही है? बाकी सब सर्दी प्रूफ हैं? केवल मैं ही ठण्ड के कपड़े पहने हुए था।
मेरे मित्र ने फरीदाबाद निवासी अपने समधी श्री बृजमोहन बंसल जी से मिलवाया। मेरी छोटी बेटी भी फरीदाबाद में ही रहती है इसलिए उनसे काफी देर तक बात हुई। वे बैंक मैनेजर के पद से रिटायर हुए थे। उनका पुत्र सिंगापुर में मास्टर कार्ड कंपनी में मैनेजर था जिससे सुनील जी की बेटी की शादी हो रही थी। दोपहर लगभग एक बजे मैंने मित्र से मुलाकात कर लौटने का मन बनाया। सुनील जी से कहा कि मैं बहुत परिश्रम से यहाँ तक पहुँच पाया हूँ और मैं रात में रुकना नहीं चाहता हूँ, घर पर माताजी की तबियत भी ठीक नहीं है, हालाँकि श्रीमती जी घर पर उनकी देखभाल के लिए हैं। मैंने सुनील जी को शगुन का लिफाफा देकर वापस लौटने की इच्छा व्यक्त की क्योंकि तेज ठण्ड के कारण रात में वहाँ रुकने की मेरी हिम्मत नहीं थी। सुनील जी ने मुझे रात शादी में रोकने का काफी आग्रह किया और मिठाई का एक डिब्बा देकर अपने एक सहयोगी को मदद के लिए मेरे साथ रहने का निर्देश दिया।
सुनील जी ने यह भी कहा कि खाना खा कर जाना, दो बजे तक खाना शुरू हो जायेगा। उस समय डेढ़ बज रहे थे लेकिन उनकी धीमी तैयारियों को देखते हुए ऐसा लग रहा था कि अगले दो घंटे में भी खाना शुरू नहीं हो पायेगा। खाने के लिए गोल्ड प्लेटेड थालियां और कटोरियाँ सजाई जा रही थीं। मैंने खाना खा कर जाने की हां कर दी। लेकिन मुझे आभास हो गया कि खाना शुरू होने में दो घंटे और लग सकते हैं। मैं बिना बताए निकलने का फैसला कर रिसोर्ट से बाहर निकल आया। ठंडी हवा पूरे जोर से बह रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे सारे गर्म कपड़ों को धता बता कर अंदर तक तीर सी पहुँच रही है।
रिसोर्ट के शहर से बाहरी इलाके में होने से वहां यातायात के साधन नहीं थे। मैंने कई कार वालों से लिफ्ट के लिए भी पूछा लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। कुछ देर बाद आठ-दस गायों का एक झुण्ड मिठाई के डिब्बे की गंध के कारण मेरे पीछे पड़ गया, भाग कर बड़ी मुश्किल से गायों से पीछा छुड़ाया। तभी एक ई-रिक्शा उल्टी दिशा से आ रहा था जिसे मैंने रोका और रिक्शेवाले से पूछा कि कहाँ जा रहे हैं तो उसने कहा कि घर जा रहा हूँ।
मैंने कहा कि मुझे मथुरा जाना है, जहाँ साधन मिले वहां तक छोड़ दो, उस समय दोपहर के ढाई बज रहे थे। ई-रिक्शे वाले ने कहा कि मेरी ड्यूटी पूरी हो गई है लेकिन मैं आपको ऐसी जगह छोड़ दूंगा जहाँ से आपको मथुरा के लिए कोई न कोई साधन मिल जायेगा। मैं रिक्शे में बैठ गया। सुबह से मैं भूखा था, कुछ भी नहीं खाया था। मैंने कुछ मिठाइयां और कचौरियां रिक्शे में ही खाई। जीवन में पहली बार मुझे समझ में आया कि हमारी संस्कृति में मेहमानों को मिठाई देकर विदा क्यों किया जाता है?
थोड़ी देर में मुझे उस ई-रिक्शे वाले ने वृन्दावन में छोड़ा और कहा कि यहाँ से आप दूसरा रिक्शा करके छटीकरा चले जाइये और वहां हाईवे से आपको मथुरा के लिए बस मिल जाएगी। अतः वहाँ से मैंने दूसरा रिक्शा किया और बीस रुपये में छटीकरा पहुंचकर बस का इंतज़ार करने लगा तभी एक ऑटो रिक्शा आया, जो मथुरा के लिए आवाज लगा रहा था। मैंने उससे कहा कि बसें भी तो मथुरा ही जाएँगी तो उसने कहा कि मैं मथुरा रेलवे स्टेशन तक छोडूंगा, बसें बाहर ही हाईवे पर छोड़ेंगी। मैंने भाड़ा पूछा तो उसने कहा कि चालीस रुपये प्रति सवारी के हिसाब से पांच सवारियों को ले जाता हूँ। सौ रुपये और एक और सवारी और बैठाने की शर्त पर वह तैयार हो गया। मैंने भी सोचा कि ठीक रहेगा, बातचीत करते हुए समय कट जायेगा।
मथुरा रेलवे स्टेशन के पास उसने दूसरी सवारी को उतारा तो मैंने पूछा कि मुझे भी यहीं उतरना है क्या? रिक्शेवाले ने कहा कि आपको मैं प्लेटफार्म नंबर एक की साइड छोडूंगा। रेलवे स्टेशन पहुंचकर मैंने ग्वालियर के लिए टिकट खरीदा और प्लेटफार्म एक नंबर पर ट्रेन का इंतज़ार करने लगा। रेलवे स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा पड़ा था। सुबह की तरह ही करीब सारी गाड़ियाँ देरी से चल रही थीं।
उस दिन वृन्दावन घूमते हुए मैंने महसूस किया कि बृज-धाम मुझे आकर्षित कर रहा है। मुझे जीवन में पहली बार ऐसी अनुभूति हुई। ऐसा क्यों हुआ, कारण मैं नहीं जनता। बृज-भूमि में ही मेरा जन्म हुआ, मेरा बचपन ग्राम गोमत में बीता, मेरी पुस्तैनी भूमि-संपत्ति आज भी बृज-भूमि में ही है, ब्रज भाषा और ब्रज संस्कृति का मुझे अच्छी तरह से ज्ञान है।
वृन्दावन का वातावरण और आध्यात्मिक सौंदर्य मुझे आकर्षित कर गया। मेरे मन में वृन्दावन को कर्म-भूमि बनाने का विचार आया कि मुझे यहाँ पर एक आश्रय स्थल या कुछ रचनात्मक कार्य करना चाहिए। प्रेरणा बनी रहे इस कारण से मैं यह संस्मरण लिख रहा हूँ, लेकिन इसका पक्का अनुमान नहीं लगा सकता कि यह योजना फ़लीभूत होगी भी या नहीं अथवा होगी भी तो कितना समय लगेगा।
मनुष्य के मन में जब कोई विचार आता है तो शमशान वैराग्य की तरह से कुछ समय तक तो उस विचार की तीव्रता रहती है, उत्साह भी रहता है लेकिन धीरे-धीरे वह उत्साह ठंडा पड़ने लगता है। प्रयास की प्रक्रिया धीमी होने लगती है और धीरे-धीरे वह विचार लुप्त हो जाता है।
मैंने तय किया कि इस विचार को ठंडे बस्ते में जाने से रोककर बृज-क्षेत्र में कुछ न कुछ ऐसा कार्य करूँ जो आध्यात्मिक उन्नति में सहायक हो। परिवार में भी किसी ने आपत्ति नहीं की। मथुरा रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार करते समय कुछ रचनात्मक विचार मन में चलते रहे।
शीघ्र ही मुझे ग्वालियर जाने के लिए एक ट्रेन जो कि करीब छः घंटे की देरी से चल रही थी मिल गई। सौभाग्य से ट्रेन में टीसी द्वारा कुछ अतिरिक्त राशि देकर तुरंत जगह मिल गई। बहुत थका हुआ था क्योंकि सुबह लगभग तीन बजे का उठा था और काफी पैदल भी चला था। थकावट के कारण ट्रेन में बड़े जोर की नींद आने लगी परन्तु ग्वालियर स्टेशन निकल न जाये इस फिक्र में सोया नहीं।
रात लगभग आठ बजे ग्वालियर रेलवे स्टेशन पहुंचा और पैदल ही घर के लिए निकल गया। जीवन के उत्तरार्द्ध में ऐसे कष्टकारी मौसम में शहर से बाहर की शादी में अनावश्यक शामिल होना कठिन काम था जो कि हरिकृपा से पूर्ण हुआ। घर पहुँच कर मुझे थकान के कारण शीघ्र नींद लग गई। अगले दिन से मैंने अपनी सामान्य दिनचर्या शुरू की।
यात्रा के दौरान बृज-भूमि में भूखंड खरीदने का विचार आया था उसके लिए अधिक जानकारी बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने अपने मौसा जी, कई रिश्तेदारों और पहचान वाले कई लोगों से बात कर उन्हें अपना विचार बताया। यह संस्मरण इसलिए लिख रहा हूँ कि उक्त शादी जिसमें शामिल होने का मेरा कोई विचार नहीं था फिर भी बेमन से मैं उस शादी में अन्तः प्रेरणा से गया था और वहीं मेरे मन में इस तरह का भाव आया कि मुझे बृज भूमि से जुड़ना है। आगे भविष्य में क्या होगा यह समय के गर्भ में छिपा है। इसलिए इस संस्मरण को लिपिबद्ध करके रखना चाहता हूँ।